नगपुरा। (दुर्ग) – श्री उवसग्गहरं पार्श्व तीर्थ नगपुरा परिसर में संचालित प्राकृतिक एवं योगोपचार संस्थान आरोग्यम् के महिला चिकित्सा अधिकारी डॉ. पूजा भेसले ने तीर्थयात्रियों आरोग्यम् के साधकों एवं स्थानीय ग्रामीणों से परिचर्चा करते हुए संगोष्ठी में बताया कि “प्रत्येक धर्म के मूल में स्व-पर आत्म कल्याण की भावना निहित हैं, स्वस्थ शरीर में हीं स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता तन। तन और मन में गहरा संबंध होता है। यदि मनुष्य का शरीर स्वस्थ होगा, तो वह किसी भी भौतिक समस्या या परिस्थिति का सामना कर उसका समाधान निकाल सकता हैं। धार्मिक आराधना, साधना के लिए शरीर की शुद्धि- आरोग्यता- स्वस्थता जरूरी है।

चातुर्मास ऐसे तो धार्मिक आराधना का पर्व है, लेकिन जैन धर्मावलंबियों के लिए यह स्वास्थ्य जागरूकता का महापर्व भी बन जाता हैं। चातुर्मास के दरिम्यान जैन धर्म के अनुयायीगण एक-दो. आठ-नौ-पन्द्रह- मासक्षमण जैसे कठिन उपवास करते हैं। छोटे छोटे बच्चे भी तीन तीन उपवास सहजता से कर लेते हैं। सूर्योदय के 48 मिनिट बाद से सूर्यास्त पूर्व मात्र गरम जल का सेवन करते हैं। उपवास को प्राकृतिक चिकित्सा का मूल आधार बताया गया हैं। उपवास से शरीर की शुद्धि होती है, जैन धर्म में न केवल चातुर्मास अपितु भिन्न भिन्न पर्व में उपवास की आराधना स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता को दर्शाता है। जैन धर्म के पूर्वाचार्यों ने उपवास के साथ ही दैनिक धर्म आराधना में भी योग – ध्यान और संतुलित आहार को स्थान दिया है। मंदिर में पूजा पश्चात् चैत्यवंदन (प्रार्थना-स्तुति -स्तवना) करते हुए विभिन्न आसन और मुद्रा, योग साधना का सूत्र है, वहीं कार्योत्सर्ग (काउसग्ग) की साधना शरीर से विमुक्त होकर आत्म ध्यान का सर्वोच्च साधन हैं। चैत्र- आसोज के महीने में नवपद आराधना अंतर्गत बिना नमक-तेल- शक्कर का आहार जिसे आयंबिल कहते हैं, यह भी प्राकृतिक चिकित्सा का भाग है। प्राकृतिक चिकित्सा में शक्कर, नमक, तेल का उपयोग नहीं किया जाता, इसे आयंबिल तप में स्वभाविक रूप पालन किया जाता है।
नगपुरा तीर्थ में अभी कुछ दिन पहले एक साध्वीजी ने एक महीने का उपवास किया, इसके पहले एक-गुरु भगवंत ने लगभग 171 उपवास के साथ विहार- प्रवचन आदि क्रिया में प्रसन्नता से जुड़े हुए थे। ऐसे तपस्वी-साधकों को देखकर जैन धर्म के प्रति अहोभाव जागृत होना स्वाभाविक हैं। वस्तुतः आज जो हम विज्ञान से पढ़ते हैं सीखते हैं, उसकी व्याख्या और वर्णन हजारों वर्ष पूर्व जैन धर्म के ग्रंथों में उल्लेखित है। में संचालित प्राकृतिक एवं योगोपचार संस्थान आरोग्यम् के महिला चिकित्सा अधिकारी डॉ. पूजा भेसले ने तीर्थयात्रियों आरोग्यम् के साधकों एवं स्थानीय ग्रामीणों से परिचर्चा करते हुए संगोष्ठी में बताया कि ” प्रत्येक धर्म के मूल में स्व-पर आत्म कल्याण की भावना निहित हैं, स्वस्थ शरीर में हीं स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है | तन और मन में गहरा संबंध होता है। यदि मनुष्य का शरीर स्वस्थ होगा, तो वह किसी भी भौतिक समस्या या परिस्थिति का सामना कर उसका समाधान निकाल सकता हैं।
धार्मिक आराधना, साधना के लिए शरीर की शुद्धि- आरोग्यता- स्वस्थता जरूरी है। चातुर्मास ऐसे तो धार्मिक आराधना का पर्व है, लेकिन जैन धर्मावलंबियों के लिए यह स्वास्थ्य जागरूकता का महापर्व भी बन जाता है। चातुर्मास के दरिम्यान जैन धर्म के अनुयायीगण एक- दो. आठ-नौ- पन्द्रह- मासक्षमण जैसे कठिन उपवास करते हैं। छोटे छोटे बच्चे भी तीन तीन उपवास सहजता से कर लेते हैं। सूर्योदय के 48 मिनिट बाद से सूर्यास्त पूर्व मात्र गरम जल का सेवन करते हैं। उपवास को प्राकृतिक चिकित्सा का मूल आधार बताया गया हैं। उपवास से शरीर की शुद्धि होती है, जैन धर्म में न केवल चातुर्मास अपितु भिन्न भिन्न पर्व में उपवास की आराधना स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता को दर्शाता है। जैन धर्म के पूर्वाचार्यों ने उपवास के साथ ही दैनिक धर्म आराधना में भी योग – ध्यान और संतुलित आहार को स्थान दिया है। मंदिर में पूजा पश्चात् चैत्यवंदन (प्रार्थना-स्तुति -स्तवना) करते हुए विभिन्न आसन और मुद्रा, योग साधना का सूत्र है, वहीं कार्योत्सर्ग (काउसग्ग) की साधना शरीर से विमुक्त होकर आत्म ध्यान का सर्वोच्च साधन हैं। चैत्र- आसोज के महीने में नवपद आराधना अंतर्गत बिना नमक-तेल- शक्कर का आहार जिसे आयंबिल कहते हैं, यह भी प्राकृतिक चिकित्सा का भाग है। प्राकृतिक चिकित्सा में शक्कर, नमक, तेल का उपयोग नहीं किया जाता, इसे आयंबिल तप में स्वभाविक रूप पालन किया जाता है।नगपुरा तीर्थ में अभी कुछ दिन पहले एक साध्वीजी ने एक महीने का उपवास किया, इसके पहले एक-गुरु भगवंत ने 171 उपवास के साथ विहार- प्रवचन आदि क्रिया में प्रसन्नता से जुड़े हुए थे। ऐसे तपस्वी-साधकों को देखकर जैन धर्म के प्रति अहोभाव जागृत होना स्वाभाविक हैं। वस्तुतः आज जो हम विज्ञान से पढ़ते हैं सीखते हैं, उसकी व्याख्या और वर्णन हजारों वर्ष पूर्व जैन धर्म के ग्रंथों में उल्लेखित है।