डेयरी व्यवसाय- पशुपालक ध्यान दे, गौ वंशीय पशुओ मे कृमिनाशक देने का है यह समय है उत्तम: डॉ मिश्रा

आशीष दास

कोंडागांव/बोरगांव । पशुपालको को वर्षा ऋतू के पहले कृषि विज्ञान केंद्र कोंडागांव के डॉ. हितेश कुमार मिश्रा, वैज्ञानिक पशु पालन व प्रबंधन, ने कृमिनाशक दवा के बारे मे जानकारी देते हुए कहा, कि दुधारू एवं अन्य मवेशियों को अन्त: कृमि नाशक दवा देने का उपयुक्त समय रहता है। गाय, भैंस के पेट में पलने वाले अदृश्य आंतरिक परजीवी जैसे फीताकृमि, गोलकृमि, लिवरफ्लूक इत्यादि दुधारू पशुओं का प्रति ब्यांत 100 लीटर तक या अधिकतम प्रतिदिन आधा से 1.0 लीटर दूध उत्पादन कम कर देते हैं एवं कुल दूध उत्पादकता में 5 से 10 प्रतिशत तक की कमी होती हैं। आंतरिक कृमि मादा गौ पशुओं की प्रजनन गाभिन होने की क्षमता भी 14 से 17 प्रतिशत तक कम कर देते है और देशी पशुओं के कम दूध उत्पादन तथा कम होती प्रजनन क्षमता मुख्य कारण भी नियमित अंतराल पर कृमि नाशक दवा नहीं देना ही है।

साधारणतया माह मई, जून में पशु के पेट में पल रहे कृमियों का प्रजनन काल होता है इसलिए जून माह में दवा दी जानी चाहिए। जुलाई, अगस्त माह में बरसाती पानी एवं बरसाती घांस, हरा चारा आदि खाना पीना पड़ता है जिनके साथ बरसाती कीड़े भी पशु के पेट में जाकर अपना डेरा जमा कर खून चूसना शुरू कर देते हैं । इनको समाप्त करने के लिए अक्टूबर माह में दवा दी जानी चाहिए । इसी प्रकार से नवम्बर, दिसंबर जनवरी माह में रिजका, बरसीम, सरसों जैसे हरे चारे खिलाएं जाते हैं, इनके साथ भी विभिन्न प्रकार के कृमि पशु के पेट में चले जाते हैं। इनके निदान के लिए फरवरी माह में दवा दी जानी चाहिए।

दवाई :

दवाई वर्ग दवा नाम

बेन्ज़िमिडाजोल, अल्बेनडाजोल, फेनबेंडाजोल ओक्सफेनडाजोल

मेक्रोसाइक्लिक लैक्टोन

आइवरमेक्टिन, डोरामेक्टिन

इमिडाजोथायाजोल, लेवामिसाजोल

सलीसायलानिलिड, ओक्सीक्लोज़ानीड

व्यस्क पशु : इस प्रकार से मवेशियों को पेट के कीड़ों से मुक्त रखने के लिए फरवरी, जून एवं अक्टूबर माह में प्रति व्यस्क पशु अन्तः कृमि नाशक दवा एलबेंडाजोल, फेनबेंडाजोल, आईवरमेक्टीन या आक्सीकलोजेनाईड दवा पशु के शारीरिक भार के अनुसार अपने क्षेत्र के पशु चिकित्सक की सलाह पर कोई भी एक दवा दलिया, गुड में मिलाकर लड्डू बनाकर देना चाहिए जिससे आंतरिक कृमि से होने वाली दूध उत्पादन व प्रजनन आदि समस्या से निजात पाया जा सकता है । अतः समस्त गाय ,भेंस को समय-समय पर अन्त कृमि नाशक दवा अवश्य देवें ।

बछड़ा : जन्म के एक सप्ताह बाद गोल कृमि (एस्केरिस) से बचने के लिए पीपराजिन शारीरिक भार के अनुसार पशु चिकित्सक की सलाह पर देना चाहिए ,भैंस के बछड़ो मे मृत्यु का मुख्य कारण गोल कृमि (एस्केरिस) ही होता है, इसके बाद प्रति माह अलग अलग दवा सही मात्रा मे 6 माह तक दी जा सकती है, 6 माह के बाद 3 बार 3 माह के अन्तराल मे तथा व्यस्क होने पर साल मे 2 से 3 बार आंतरिक कृमि की दवा देना चाहिए ।

ब्राह्य कृमि: पशु शरीर पर पलने वाले ब्राह्य कृमि चिंचडे, जूं एवं पिस्सू इत्यादि भी पशु को तनाव मे लाकर काफी नुकसान पंहुचाते है। ये बाह्य कृमि अनेक रोग के जैसे बबेसिया (लाल पेशाब बीमारी), थाईलेरिया, एनाप्लास्मा आदि बीमारी फैला कर अधिक आर्थिक व जानमाल की हानि करती है, पशुओं को इनसे भी बचाये रखना आवश्यक है। एक चिंचडा प्रति दिन 1.5 एम.एल. खून चूस जाता है । बाजार में प्रचलित ब्यूटोक्स दवा एक लीटर पानी में 5.0 एम.एल. मिला कर या कोई अन्य दवा का पशु चिकित्सक की सलाह अनुसार पशु शरीर पर पोंछा लगाना या छिड़काव करना चाहिए, बची हुई दवा को पशुशाला में भी छिड़क देना चाहिए ।

इस विषय पर जिला पशु चिकित्सालय की पशु चिकित्सा सहायक शल्यज्ञ डॉ. नीता मिश्रा ने बताया कि गाभिन पशुओ को कृमि की दवा न दे, प्रथम व आखरी तिमाही इन दवाओ के लिए बहुत संवेदनशील रहती है, अतः आवश्कता होने पर चौथे से छटवे माह तक प्रसव सुरक्षित दवा जैसे फेनबेंडाजोल, ओक्सीक्लोज़ानीड आदि सर्टिफाइड चिकित्सक की सलाह पर दी जा सकती है तथा दवा की ताकत जानने के लिए फीकल एग गणना: बड़े व आधुनिक डेयरी मे पहले सूक्ष्मदर्शी से गोबर मे उपस्थित कृमि के अंडो की गणना की जाती है, तत्पश्चात दवा देने के बाद पुन: सूक्ष्मदर्शी से गोबर मे उपस्थित कृमि के अंडो की गणना की जाती है लगभग 95% तक कृमि अंडो मे कमी, दवा के असर को प्रदर्शित करती है।