भाई- बहन के निश्छल प्रेम का प्रतीक है देवबलौदा का शिवालय

  • तेरहवीं शताब्दी में निर्मित देवबलौदा का शिव मंदिर आज भी है अधूरा

  • सावन के पावन माह पर सीजी मितान की विशेष खबर

अनुराग तिवारी/ भिलाई नगर। तेरहवीं शताब्दी में बना देवबलौदा का महादेव मंदिर आज भी बिना गुबंद का है। ऐतिहासिक महत्व वाले इस अधूरे मंदिर निर्माण की भी अपनी कहानी है। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही कहानी में हालांकि कुछ बदलाव आया है बावजूद आज भी कहानी काफी मार्मिक है। मंदिर का निर्माण करने वाले शिल्पकार भाई एवं उसकी बहन के निश्चल प्रेम का बखान करने वाले इस मंदिर में सावन के पवित्र माह में प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं और भगवान शिव की पूजा अर्चना करते हैं।

देवबलौदा के प्राचीन महादेव मंदिर में स्वयंभू शिवलिंग का वास है। स्थानीय निवासियों के अनुसार मंदिर का निर्माण 13वीं शताब्दी में कलचुरी साम्राज्य के राजाओं द्वारा कराया गया था। मंदिर की निर्माण अवधि 6 माह की थी। बलुआ पत्थरों से निर्मित इस मंदिर में गर्भगृह के साथ नवरंग मण्डप शामिल है। मंदिर के गर्भगृह में स्वयंभू शिवलिंग स्थापित हैं। मंदिर की दीवारों एवं प्रवेश द्वार पर द्वारपाल एवं अनुचरों के भित्तीचित्र बने हुए हैं। मंदिर के नवरंग मण्डप के स्तंभों पर भैरव, विष्णु, महिषासुरमदिनी, त्रिपुरान्तकशिव, वेणुगोपाल के अतिरिक्त कीर्तिमुख एवं विभिन्न नृत्यांगनाओं के चित्रों का अंकन है। जो मंदिर की भव्यता को बढ़ाते हैं। मंदिर के बाहर की दीवारों पर गजधर, अश्वथर एवं नरथर के सुरूचिपूर्ण चित्रों का अंकन किया गया है। मंदिर में प्रवेश के लिए दो प्रवेशद्वार हैं।

मंदिर में कोई पुजारी नहीं बैठता। गांव के निवासी एवं बाहर से आने वाले श्रद्धालुगण स्वयं ही मंदिर के गर्भगृह में जाकर स्वयंभू की पूजा करते हैं। मंदिर की दीवारों पर अन्य देवताओं के भित्तिचित्र की भी पूजा की जाती है। मंदिर परिसर में नंदी जी का एक छोटा सा मंदिर है साथ ही एक पुराना पीपल का वृक्ष है जिसकी भी पूजा की जाती है।

मंदिर से ही लगा हुआ एक कुण्ड है जो मंदिर के निर्माण के पूर्व से बना हुआ है। लोगों का कहना है कि इस कुण्ड में 12 महीने पानी रहता है। मंदिर के स्वयंभू शिव के अभिषेक का जल कुण्ड में जाता है। स्थानीय निवासियों के अनुसार मंदिर के शिल्पकार ने इस कुण्ड में कूदकर अपनी जान दे दी थी। उसके बाद शिल्पकार की बहन ने भी इसी कुण्ड में अपने प्राण त्याग दिये थे। इस समय तक मंदिर का निर्माण पूरा नहीं हुआ था। तब से लेकर आज तक इस मंदिर को उसी अवस्था में रखा गया है जिस अवस्था में उस शिल्पकार ने इसे छोड़ दिया था। मंदिर में गुंबद नहीं बन पाया है।

शिल्पकार ने कुण्ड में दी अपनी जान

स्थानीय निवासियोंं के अनुसार मंदिर के शिल्पकार ने इस कुण्ड में कूदकर अपनी जान दे दी थी। दरअसल मंदिर का शिल्पकार निर्माण के समय निर्वस्त्र रहता था। उसका मानना था कि मेरी भक्ति और भगवान के बीच वस्त्र के रूप में कोई बाधा नहीं होनी चाहिए। उसकी पत्नि रोजाना उसके लिए भोजन लेकर आया करती थी। एक दिन उसे कुछ जरूरी काम पड़ गया जिससे वह खाना लेकर नहीं जा पायी और उसने अपनी जगह शिल्पकार की बहन को खाना लेकर शिल्पकार के पास भेज दिया। मंदिर के द्वार में प्रवेश करते वक्त शिल्पकार की बहन ने अपने भाई को निर्वस्त्र देख लिया इससे शिल्पकार ने अपने आप को लज्जित महसूस कर उस डूबकी में कूदकर अपनी जान दे दी। शिल्पकार की बहन ने खुद को अपने भाई की मौत का कारण समझते हुए खुद भी कुण्ड की दूसरी ओर कूद गई और अपने प्राण त्याग दिये।

आरंग में भी है ऐसा ही मंदिर

जानकारों के अनुसार मंदिर के निर्माण, वस्तुकला एवं बनावट को देखकर माना जाता है कि आरंग में ही इसी तरह का एक अन्य मंदिर का बनाया गया है जो इसी शिल्पकार द्वारा निर्मित किया गया है। वस्तुकला एवं भित्तीचित्रों की बनावट भी समान है। आरंग के गर्भगृह एवं स्तंभों की में बने अंकन भी देवबलौदा के महादेव मंदिर के समान ही हैं।