असत्य का कहीं सत्ता नही,सत्य सर्वत्र विद्यमान– स्वामी संत निरंजन महराज जी

संजय साहू

अंडा। जब तक हम अपने जीवन में असत्य मन को हटाकर शास्वत सत्य को अंगीकार नही करेंगे,हमारी जीवन की पूंजी बढ़ने वाली नही है,सद् पुरुषार्थ बढ़ने वाला नही है और आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त होने वाला नही है। सतसंग से,चिंतन से,भगवान के नाम से और सद्गुरु कृपा से जीवन में सत् पुरुषार्थ बढ़ता है। भक्ति की सत्ता स्वतंत्र है और उस स्वतंत्र सत्ता को प्राप्त करने का माध्यम सतसंग है। बिना सतसंग के प्राणी पावन नही हो सकता।
दुर्ग ग्रामीण क्षेत्र के ग्राम बोरई में दीपक यादव परिवार एवं ग्रामवासियों के सहयोग से आयोजित भागवकथा यज्ञ सप्ताह में भगवताचार्य स्वामी संत निरंजन महराज लिमतरा आश्रम ने प्रथम दिवस की कथा को विस्तार देते हुए कहा कि, भागवत कथा मनुष्य जीवन का जिते जी मुक्ति प्रदान करने वाली है। जीवन में जब कामनाओं की पूर्ति नही होती तो क्रोध होता है,क्रोध से मूढ़ भाव जन्म लेता है,मूढ़ भाव से स्मृति खत्म हो जाती है,स्मृति के नाश होने से बुद्धि बिगड़ जाती है और बुद्धि बिगड़ने से विवेक खो जाता है । मनुष्य अपने जिंदगी से गिर जाता है और मनुष्य का सर्वनाश हो जाता है। कलियुग का प्रभाव पड़ते ही राज परिक्षित ,जिसका परखा हुआ जीवन था,के साथ भी यही हुआ। अर्थात जीव ही परिक्षित है और काल तक्षत ।
जीवन में जब अपराध बोध होता है तो सुखदेव जी महाराज का प्रादुर्भाव होता है और भगवत मार्ग प्रशस्त हो जाता है और मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है ,जैसे सपेरे सर्प से भय नही खाता वैसे ही भागवत प्रेमी काल से भयभीत नही होता। काल के भय से मुक्त हो जाना ही मुक्ति है। भागवत रुपी अमृत पीकर कोई मरता नही है ,चढ़ता है, जीवन के सच्चाई को प्राप्त करता है,भौतिकता में भटकता नही सार्थक सत्य को स्वीकार करता है। जिससे जीव धन्य हो जाता है।
बीज रुपी परमात्मा का ध्यान निर्गुण भाव से करें या सगुण भाव से तत्व तो वही है मूल में वही है अत:दोनों में कोई भेद नही है ,ईश्वर प्रेम के भूखे हैं उनके शरण जो गये जो अर्पण किये सब स्वीकार किये ,जहर परोसने वाली पुतना का भी उद्धार कर देते हैं ,जगत कल्याण का भाव जिसके अंदर आ जाता है वो भगवान को प्रिय हो जाते हैं। दान,दया, धर्म ,परमार्थ चरित्र ,चिंतन ऐसे अप्रकटित गुणों से भरे जीव ही मनुष्य कहलाने योग्य होते हैं। संसार से प्राप्त संसाधनों का संसार के हित के लिए अर्पण कर देना ही मनुष्यता है।