गोधन मालिक की सुख-समृद्धि‌ बढ़ाने के लिए राऊताई बनाती हैं हाथा

अंडा।छत्तीसगढ़ की समृद्ध सांकृतिक परंपरा में लोक चित्रों की अपनी अलग एवं अनूठी छाप है । इसमें भूमि अलंकरण के रूप में चऊक पुरना से लेकर के भित्ति अलंकरण की अपनी अलग परंपरा है। इसमें राऊत समुदाय का भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। वेक्षअपने पास गोधन नहीं होने पर भी गांव के मालिकों, ठाकुरों के गोधन का चारण करते हुए निरंतर उनके सुख- समृद्धि की कामना करते हैं।

क्योंकि उनकी जीवन शैली गोधन पर आधारित होती है। यही कारण है कि देवारी, जेठउनी और‌ पुन्नी यानी पूर्णिमा के दिन राऊत महिलाएं अपने-अपने मालिकों के घरों की पहचान करने तथा उनके सुख-समृद्धि और गोवर्धन पर्वत के रूप में हाथा का निर्माण करती हैं। शिक्षक व लोक सांस्कृतिक शोधकर्ता राम कुमार वर्मा ने बताया कि यह हाथा द्वापर की उस घटना को याद दिलाती है, जिसमें इंद्र के घमंड को श्रीकृष्ण द्वारा गोवर्धन पूजा करके मर्दन किया गया था। राताईनों द्वारा बनाई गई हाथा पूर्णतः गोवर्धन पर्वत का प्रतीक है। इसका रेखांकन व चित्रांकन वे लोग प्राकृतिक वनस्पतियों सेमी पत्ता, पोई पत्ता सहित द्वारा संतरा, माहुर, टेहर्रा, नील रंग आदि के का उपयोग करके सुंदर चौकोर, अष्टकोणीय हाथा बनाती हैं । जब देवारी, देवउठनी या पूर्णिमा के दिन राऊत अपने मालिकों के गोधन को सोहई बांधने आते हैं, तब वे इन हाथों पर मालकिन द्वारा दिए गए सेर-सीधा में से चावल या धान को गोबर में लिटाकर सुखधना लगाते हैं और आशीष देते हुए दोहा पारते हैं- जइसन जइसन लिहौ दिहौ हो मालिक, वइसने देबो आसीसा । अन्न धन भंडार भरे मालिक, तुम जियो लाख बरीसा।। ग्राम अंडा,चिंगरी, कुथरेल, विनायकपुर ,निकुम,जंजगिरी, चंदखुरी, मटिया, ओडारसकरी ,ओटेबंद,सिरसिदा,परसदा,डंगनिया, नाहंदा,गुरेदा,सलौनी,देवरी ख,खप्परवाड़ा,आमटी,तिरगा,झोला,अंजोरा,थनौद,रसमडा,गनियारी,बोरई, नगपुरा सहित दुर्गग्रामीण अन्य गांव में हर्षोल्लास के साथ मनाया देवउठनी एकादशी पर्व को
ग्राम अंडा निवासी श्रीमती सुखवन्तीन यादव, हेमलता निर्मलकर इस तरह से विशुद्ध मन से राऊत समुदाय के लोग अपने ठाकुर, मालिकों को जोहारते व आशीष देते हैं और मालकीन उन्हें सूपड़ा भर सेर सीधा देकर उचित रूप से उपहार देकर पुरस्कृत करती हैं । इस तरह से राऊताईनों द्वारा बेहद मौलिक हाथों का निर्माण किया जाता है। वैसे हाथा तीन स्थलों पर अलग-अलग तरह से बनाया जाता है । एक तो प्रवेश द्वार पर, दूसरा रसोई घर अर्थात् अन्न भंडार पर या कोठी पर और अंत में तीसरा जो गौशाला अर्थात् कोठा में बनाया जाता है । जहां पर राऊत लोग बाजा-गाजा के साथ आकर जाकर सुखधना लगाते हैं । यह छत्तीसगढ़ की लोक चित्रकला शैली की समृद्ध परंपरा है। इसमें राऊत समुदाय का विशेष रूप से राऊताईनों का विशेष योगदान है। मालकिन द्वारा इन्हें हाथा पारने के लिए अलग से सेर सीधा देती और अच्छा हाथा बनाने का मनुहार भी करती हैं।